उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्कयारा टनल के एक हिस्से के ढह जाने से 41 मजदूर कई दिनों से फंसे हुए हैं। इस समय वो सभी एक ऐसी टनल में कैद हैं जहां तक रेस्क्यू टीम के लिए पहुंचना काफी मुश्किल साबित हो रहा है। आलम ये है कि तमाम प्लान जमीन पर फेल होते जा रहे हैं। 9 दिन बाद उन मजदूरों को खाना तो नसीब हुआ है, लेकिन बाहर निकलने की कोई तारीख सामने नहीं आई है। रेस्क्यू करने वाली टीम लगातार उन मजदूरों से संपर्क बनाए हुए है, मंगलवार को तो टनल के जरिए एक कैमरे ने उन मजदूरों की स्थिति को भी साफ-साफ दर्शा दिया है।
अब कई दिनों से जारी रेस्क्यू अपनी जगह है, कैमरे में कैद मजदूरों की शारीरिक स्थिति भी दिख चुकी है, लेकिन ऐसी स्थिति में उनकी आपबीती को सही तरह से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक उनके मन में ना झांका जाए। इन परिस्थितियों में इंसान की मेंटल हेल्थ कैसी रहती है, उसके मन में क्या चलता है, इस पर काफी कुछ निर्भर कर जाता है। अब वर्तमान स्थिति में उन मजदूरों तक नहीं जाया जा सकता, लेकिन मनोवैज्ञानिकों के जरिए उन मजदूरों के मन में जरूर झांका जा सकता है। ये समझने की कोशिश हो सकती है कि इस समय वे किस दर्द से गुजर रहे हैं, उनके मन में क्या चल रहा है। ये भी पता लगाया जा सकता है कि रेस्क्यू होने के बाद इन मजदूरों की मानसिक स्थिति कैसी रहने वाली है, उनकी जिंदगी पर इसका क्या असर पड़ने वाला है।
इन्हीं सब सवालों के जवाब जानने के लिए हमने कई मनोवैज्ञानिकों से बात की, उनके जरिए इन मजदूरों के दर्द को समझने का प्रयास रहा। सबसे पहला सवाल तो यही रहा कि इस समय टनल में फंसे मजदूरों के मन में क्या चल रहा है, उनकी मानसिक स्थिति कैसी है। इस सवाल का जवाब देते हुए फोर्टिस अस्पताल की वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर हेमिका अग्रवाल कहती हैं-
जब भी हम पर कोई खतरा आता है, हमारे शरीर में ऐसे डिफेंस मैकेनिज्म होते हैं जो हमे लड़ने में मदद करते हैं। ये मजदूर इस समय जिस तरह की स्थिति में फंसे हुए हैं, इनका थोड़ा पैनिक करना, उन्हें डर लगना बहुत लाजिमी है। अगर ऐसा नहीं होता है तब हम इसे एबनॉर्मल कह सकते हैं। अभी इस समय मजदूरों का थोड़ा स्ट्रेस लेना वैसे भी जरूरी है। अगर उनमें थोड़ी भी एंजाइटी नहीं होगी तो वे अपना बचाव नहीं कर पाएंगे। हमे किसी भी हालत में मजदूरों को उस हालत में नहीं लाना है कि उनके हाथ पैर फूले, वो इतना डर जाएं कि हमारी मदद भी ठीक तरह से ना ले पाएं।
ये समझना जरूरी है कि जब कोई ऐसी स्थिति में फंस जाता है तब उसका शरीर एड्रिनल हार्मोन जेनरेट करता है। उस हार्मोन की वजह से इंसान जरूरत से ज्यादा चौकना हो जाता है, वो काफी सतर्क रहने लगता है। आम लोग उस चौकन्नेपन को उसका अतिरिक्त डरना समझ सकते है, लेकिन उसके बचाव के लिए वो ही सबसे ज्यादा जरूरी है।
डॉक्टर हेमिका अग्रवाल, मनोचिकित्सक (फोर्टिस अस्पताल)
अब डॉक्टर हेमिका ने जरूर थोड़े तनाव को जरूरी माना है, लेकिन जब हमने डॉक्टर सारिका बूरा इस बारे में बात की तो उन्होंने जोर देकर कहा कि ऐसी स्थिति में एंजाइटी के साथ-साथ अकेलापन का अहसास भी हो सकता है। वे ये भी मानती हैं कि हर इंसान का शरीर एक तरह से रिस्पॉन्ड नहीं करता है, ऐसे में टनल में फंसे मजदूरों में भी अलग-अलग लक्षण दिखना लाजिमी है। वे कहती हैं-
उत्तरकाशी में इस समय जो मजदूर फंसे हुए हैं, उनकी स्थिति सही मायनों में काफी चिंताजनक है। हमारे लिए बाहर से ये बोल देना कि सब ठीक हो जाएगा, ये आसान है। लेकिन असल चुनौतियों का सामना उन्हें करना पड़ रहा है। इस समय मजदूर एंजाइटी महसूस कर रहे हैं, कई ऐसे भी होंगे जो इस भीड़ में रहकर भी खुद को अकेला महसूस कर रहे होंगे। फर्क बस इतना होगा कि किसी की स्थिति ज्यादा खराब हो सकती है तो किसी की कुछ बेहतर।
इस समय मजदूरों को उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। उम्मीद एक ऐसी फीलिंग है जो मुश्किल स्थिति से भी इंसान को निकाल सकती है। खुद को रिलेक्स करने के लिए इस समय डीप ब्रीदिंग करना भी काफी असरदार रहने वाला है। खुद को वर्तमान स्थिति से जितना डिस्ट्रैक्ट करेंगे, उतना जल्दी रीकवर भी किया जा सकता है। जब आप अपने भविष्य के बारे में सोचते रहते हैं- तब ज्यादा चिंता में आते हैं, ऐसे में मजदूरों को सिर्फ अच्छी यादों के बारे में सोचना चाहिए। बाहर जाकर परिवार से मिलेंगे, उस फीलिंग से खुश होना चाहिए।
डॉक्टर सारिका बूरा, मनोचिकित्सक
वैसे ऐसी स्थिति में जो पीड़ित होता है वो सिर्फ वो शख्स नहीं जो वहां फंसा हुआ है, बल्कि उसका परिवार भी काफी दर्द से गुजरता है। अगर उत्तरकाशी में टनल के अंदर मजदूर फंसे हुए हैं तो बाहर उनका परिवार भी एक अलग ही गम में डूबा हुआ है। उनका दर्द भी टनल में फंसे मजदूरों की मुश्किलों को और ज्यादा बढ़ाने का काम कर रहा है। इस प्वाइंट पर डॉक्टर अनामिका पपरीवाल ने विस्तार से रोशनी डाली है। उनका कहना है-
देखिए ऐसी स्थिति का असर तो किसी के भी दिमाग पर निगेटिव ही रहता है। इस समय कई चीजें उनकी मेंटल हेल्थ को इफेक्ट कर रही हैं। खुद को बचाने की जद्दोजहद तो है ही, इसके साथ-साथ अपने परिवार को लेकर भी उन्हें इस समय चिंता है। अगर उन्हें कुछ हो गया तो उनके परिवार का क्या होगा, ये डर उनके मन में बना हुआ है। खुद से ज्यादा हम दूसरो की फ्रिक करते हैं, ये टेडेंसी ही और ज्यादा परेशान करने का काम करती है। मैं समझती हू ऐसी स्थिति में इमोशन ज्यादा हावी हो जाते हैं।
अगर कोई मजबूत विल पावर वाला होता है तो वो तो खुद भी हिम्मत में रहता है और दूसरो को भी हिम्मत देने का काम करता है। उससे बाहर निकलने का उत्साह बना रहता है। कहना चाहिए कि मजदूर इस समय दो तरह के इमोशन से घिरे हुए हैं, उन्हें अपने परिवार की चिंता परेशान कर रही है तो वहीं रेस्क्यू की एक उम्मीद कुछ उत्साह भी जगा रही है।
डॉक्टर अनामिका पापड़ीवाल, काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट और साइकोथैरेपिस्ट
अब डॉक्टर अनामिका ने अपनी बातचीत में एक तरफ परिवार वाले एंगल पर फोकस किया है तो वहीं उनका ये भी मानना है कि ऐसी स्थिति में पैनित अटैक आना कुछ मुश्किल है। इस मामले में उनकी राय डॉक्टर सारिका बूरा से कुछ अलग दिखाई पड़ती है। उनका कहना है कि ऐसी स्थिति में मजदूरों का पैनिक अटैक आना मुश्किल है क्योंकि वे अकेले नहीं है, कई मजदूर फंसे हुए हैं। जब कोई अकेला होता है, तब ऐसी स्थिति में जरूर पैनिक अटैक की संभावना बन जाती है, लेकिन जब कई लोग साथ हों, तो ऐसा मुश्किल लगता है। वैसे भी जब आपको दूसरों की तकलीफ भी दिख रही होती है, तब आपकी अपनी तकलीफ कुछ छोटी हो जाती है, ये अपने आप में एक मोटिवेशन का काम करता है।
वैसे मोटिवेशन करने का काम इस समय सिर्फ मजदूरों को नहीं करना है, बल्कि बाहर जो रेस्क्यू करने में लगे हैं, इस समय जो डॉक्टर वहां मौजूद है, उनकी भूमिका भी उतनी ही जरूरी बन जाती है। क्या मैसेज कम्युनिकेट किया जा रहा है, इसका सीधा असर टनल में फंसे मजदूरों पर पड़ने वाला है। ऐसे में ये सवाल हमने अपने तमाम डॉक्टरों से पूछा कि आखिर किस तरह से इन मजदूरों को अभी मोटिवेट किया जा सकता है। इस पर भी सभी की तरफ से काफी जरूरी जानकारी साझा की गई है। इस बारे में डॉक्टर हेमिका बताती हैं-
सबसे ज्यादा जरूरी तो ये है कि मैसेज साफ दिया जाए कि कोई भी मजदूर इस समय अकेला नहीं है, उन्हें बाहर निकालने का काम लगातार किया जा रहा है। मजदूरों को ये संदेश देना भी जरूरी है कि वे अधिकारियों द्वारा दिए जा रहे हर इंस्ट्रक्शन को फॉलो करने की स्थिति में रहें, उन्हें हताश नहीं हो जाना है। पता चले कि एंजाइटी इतनी होवी हो गई कि वे कुछ भी करने की स्थिति में नहीं आ पा रहे हैं।
डॉक्टर हेमिका अग्रवाल, मनोचिकित्सक (फोर्टिस अस्पताल)
अब इसी कड़ी में डॉक्टर अनामिका ने भी एक जरूरी बात बोली है। उनके मुताबिक अभी तो जो खाना भी पाइप के जरिए मजदूरों तक पहुंचाया जा रहा है, वो अपने आप में किसी बड़े मोटिवेशन से कम नहीं है। उन तक जो दवाइंया पहुंच रही हैं, जो दूसरी चीजें भेजी जा रही हैं, वो एक उम्मीद है कि सभी उनके साथ खड़े हैं। उनका कहना है-
इस समय तो मजदूरों के लिए हर छोटी चीज भी मोटिवेशन साबित होने वाली है। रेस्क्यू टीम जो उन्हें खाना भेज रही है, जो दवाइयां भेज रही है, वो भी उनमें उम्मीद बांधने का ही काम है। असल में ये सामान वो संदेश है कि हां हमे कोई तो बचाने के लिए आने वाला है। ऐसे में लगातार उन्हें इस बात का अहसास करवाना कि वे अकेले नहीं है, ये बहुत जरूरी हो जाता है। ऐसे ही उन्हें सकारात्मक बनाया जा सकता है।